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________________ सम्यग्दृष्टि का चौथा चिन्ह : अनुकम्पा ) २०६ तुल्य समझा। यह भाव-अनुकम्पापूर्वक द्रव्य-अनुकम्पा का जीता-जागता उदाहरण है। जैन इतिहास का एक उज्ज्वल पृष्ठ अनुकम्पा की जीती-जागती तस्वीर प्रस्तुत करता है । कर्मयोगी श्रीकृष्ण भगवान अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ हाथी पर सवार होकर जा रहे थे। रास्ते में उनकी दृष्टि सहसा एक जराजीर्ण बूढ़े पर पड़ी। वह बेचारा अकेला ही कांपते हाथों से एक-एक ईंट उठाकर घर के अन्दर रख रहा था। उस दुःखित और असहाय वृद्ध को देखकर श्रीकृष्णजी का हृदय अनुकम्पा से भर आया। उन्होंने किसी सेवक को आज्ञा नहीं दी, स्वयं हाथी से उतर पड़े और चुपचाप स्वयं ईंटें उठाकर रखने लगे। श्रीकृष्णजी को यह करते देख उनके सभी सेवक भी उस कार्य में जुट पड़े । थोड़ी ही देर में बूढ़े की तमाम ईंटें अन्दर रख दी गईं। वृद्ध ने श्रीकृष्णजी के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। अनुकम्पा का व्यावहारिक रूप इस प्रकार की अनुकम्पा के कारण ही श्रीकृष्णजी में सम्यग्दृष्टि की यथार्थ पहचान हो गई। वृद्ध को श्रीकृष्णजी द्वारा दी गई सहायता यद्यपि द्रव्य-अनुकम्पा है परन्तु इसके गर्भ में भाव-अनुकम्पा न होती तो कोरी द्रव्य-अनुकम्पा निःस्वार्थ भाव से आत्मौपम्यदृष्टि से न होती, अकेली द्रव्य-अनुकम्पा के पीछे आत्मौपम्य का ज्ञान नहीं होता । निःस्वार्थ भाव, या किसी प्रकार का निष्कांक्ष भाव भी नहीं आता। इसी कारण भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है ---"पढमं नाणं तओ दया।' __इसका भावार्थ यह है कि पहले यह ज्ञान होना चाहिए कि दूसरे प्राणियों में भी मेरे समान आत्मा विलसित हो रहा है। ऐसी आत्मीयता जहाँ होगी, वहाँ अनुकम्पा पात्र को जरा भी दुःख न हो, इस प्रकार जीने की भावना स्वाभाविक रहती है। इतना ही नहीं, उसके साथ सहानुभूति, सहयोग भावना और तत्पश्चात् सहिष्णुतापूर्वक व्यवहार, अर्थात्-अनुकम्पापात्र व्यक्ति के हित या सुख के लिए स्वयं कष्ट सहने, असुविधा उठाने की वृत्ति-प्रवृत्तिपूर्वक उसका जीवन-व्यवहार होगा । महानिशीथ सूत्र के वृत्तिकार इसी पंक्ति का स्पष्ट विश्लेषण करते हैं कि दया-अनुकम्पा में सारे १ अन्तकृद्दशांग सूत्र के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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