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२०८ | सद्धा परम दुल्लहा समाप्ति नहीं हो जाती। आत्मतुल्य दृष्टि से जगत् के जीवों को देखने वाले व्यक्ति में ही सच्ची अनुकम्पा प्रकट होती है ।।
___ कोई भी प्राणी दुःखी न हो, सभी प्राणी सुखी हों, तथा दूसरों को अज्ञानादिवश दुःखित देखकर निःस्वार्थ भाव से सुखी बनाने की भावना भी भावानुकम्पा है। भाव-अनुकम्पापूर्वक यथाशक्ति यथामति किसी दुःखी, पीड़ित आदि को सहायता देकर दुःख मिटाना द्रव्य-अनुकम्पा है। कई लोग कहते हैं कि हमारे पास धन इतना नहीं है कि हम अपना गृहस्थ जीवन चलाने के बाद कुछ बचत कर सकें और उसमें से दीन-दुखियों की मदद कर सकें। परन्तु किसी भी दुःखित-पीड़ित को सहायता केवल धन से ही नहीं, किन्तु तन से शारीरिक सेवा देकर, वचन से सहानुभूति प्रगट करके, आश्वासन प्रोत्साहन तथा बौद्धिक सत्परामर्श-देकर अथवा दूसरों से सहायता दिलवा कर या दूसरों को सहायता देने का कहकर सहयोग प्रदान कर सकते हैं। कई निर्धन व्यक्तियों का हृदय भी इतना दया एवं अनुकम्पाशील होता है कि वह स्वयं अपने खर्च में कतरव्योंत करके दुःखित और पीड़ित व्यक्ति को अर्थ-सहयोग दे देते हैं । उनकी परमार्थ भावना वह पीड़ित और दुःखित प्राणी को देखकर उसके दुःख दूर किये बिना रह ही नहीं सकती।
अमेरिका के तत्कालीन न्यायाधीश एब्राहिम लिंकन अपनी घोड़ा गाड़ी में बैठकर न्यायालय में जा रहे थे। तभी रास्ते में उन्होंने एक सूअर को कीचड़ में फंसे हए और निकलने के लिए छटपटाते देखा। उन्होंने अपने सईस या किसी नौकर को आदेश नहीं दिया। घोडागाड़ी रुकवाकर वह स्वयं उतरे और कीचड़ में फंसे हए सूअर को पकड़कर बाहर निकाला। यद्यपि सूअर के द्वारा अंगों को फड़फड़ाने से कीचड़ उछल कर लिकन' के कपड़ों पर लग गया था । परन्तु सूअर के कष्ट को अपना कष्ट समझकर उन्होंने उसे बाहर निकाल कर उसका कष्ट दूर कर दिया, इसका उन्हें बहुत सन्तोष था। सूअर की आत्मा को न्यायाधीश लिकन ने अपनी आत्मा के
१ अकम्पा दुःखितेषु अपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छा, पक्षपातेन तु करुणा स्वपुत्रादौ व्याघ्रादीनामप्यस्त्येव । सा चाऽनुकम्पा द्रव्यतो भावतश्च भवति । द्रव्यतः सत्यां शक्तौ दुःखप्रतीकारेण, भावत आर्द्रहृदयत्वेन ।
- योगशास्त्र, प्रकाश २, श्लो १५ टीका ‘आत्मौपम्पेन सर्व पश्यतो हि सा (अनुकम्पा) स्यात् ।'
--पंचलिंगी प्रकरण गाथा १ टीका
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