SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दृष्टि का चौथा चिन्ह : अनुकम्पा | २०५ संकुचित स्वार्थ, कठोरता, अहंता-ममता आदि दुर्गुणों के गाढ़ अन्धकार से घिरा हुआ है । अतः अनुकम्पा इस बात की प्रतोति करा देती है कि जिस व्यक्ति में प्राणिमात्र के प्रति आत्मीयता का भाव जागृत हुआ है, किसी प्राणी के दुःख को जान-देखकर जिसका हृदय कम्पित हो उठता है, वह सम्यग्दृष्टि है, सम्यक्त्वी है। अनुकम्पा क्या है, क्या नहीं ? जब सम्यग्दृष्टि को परखने को एक निशानी अनुकम्पा है, तब प्रश्न होता है कि अनुकम्पा किसे कहते हैं ? सामान्य रूप से अनुकम्पा का अर्थ होता है-'परदुःखानुकूलं कम्पनं - 'अनुकम्पा' । इसका फलितार्थ यह है कि अपने-पराये के भेद या अन्य किसी पक्षपात के बिना किसी भी धर्म, जाति, प्रान्त, या राष्ट्र के दुःखी प्राणी को देख-सुनकर हृदय द्रवित या कम्पित हो उठना तथा उस दुःख को दूर करने को तत्पर होना -अनुकम्पा है। गुणभूषण श्रावकाचार में इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा है - सर्वजन्तष चित्तस्य, कृपावं कृपालवः । सद्धर्मस्य परं बोजमनु कम्पां वदन्ति ताम् ॥ समस्त प्राणियों पर चित्त के दयार्द्र होने को तथा सद्धर्म के उत्कृष्ट बीज को दयालुगण 'अनुकम्पा' कहते हैं । अनुकम्पा धारण करने वाले व्यक्ति की आत्मा दया से इतनी स्निग्ध या आर्द्र हो जाती है कि वह किसी भी मनुष्य या प्राणी को कष्ट, संकट या दुःख में पड़ा देखकर चुपचाप नहीं रह सकता। उसके हृदय में दुःखी को देखकर सहसा यह भावना उठती है कि "जैसे मैं दुःख आ पड़ने पर उससे मुक्त होकर सुखी होना चाहता हूँ, वैसे यह जीव भी दुःखमुक्त होकर सुखी होना चाहता है । दुःख जैसा मुझे कष्ट देता है, वैसा इसे भी देता होगा।" इस प्रकार दूसरे प्राणी या मानव को दुःखित या पीड़ित देखकर अनुकम्पाशील सम्यग्दृष्टि के हृदय में उसके अनुकुल अनुभूति जाग जाती है। वह दूसरों के दुःख और कष्ट को अपना ही कष्ट या दुःख समझने लगता है। भगवान् महावीर के इस कथन के प्रति उसकी दृढ़ श्रद्धा होती है --- 'सत्वे पाणा पियाउया सुहमाया, दुक्खपडिकूला।' --- आचारांग १/२/३/२४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy