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________________ २०४ | सद्धा परम दुल्लहा चित्त परार्थभावना से वासित होता है, तभी वह मनुष्य को उत्तरोत्तर अधि. काधिक शुद्ध करके मुक्ति तक ले जा सकता है । यही परार्थभावना, आत्मवत् सर्वभूतेषु की या स्व-परहित की भावना ही अनुकम्पा के रूप में सम्यगदृष्टि के जीवन में अवतरित होती है। इसीलिए भगवान महावीर ने सम्यग्दर्शनी को पहचानने-परखने के जो पाँच लक्षण (चिन्ह) बताए हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण लक्षण अनुकम्पा को बताया है। जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है, उसके अन्तर में समग्र प्राणिजगत के प्रति आत्मीयता का ऐसा निर्मल प्रवाह बहता रहता है कि उसका हृदय किसी भी प्राणी के दुःख, कष्ट या संकट को देखकर द्रवित हो उठता है। यही नहीं, अपराधी, दुर्जन, पापी या अधर्मी को देखकर भी उसके अन्तर् में अनुकम्पा-- वात्सल्यमयी दृष्टि जाग उठती है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ आवश्यकता पड़ने पर अपने कर्तव्य या दायित्व के नाते अपराधी को दण्ड भी देता है, परन्तु अन्तर से उसके हृदय में उसके प्रति जरा भी द्वष, रोष था दुष्ट बुद्धि नहीं होती; उसको सुधारने की, उसकी आत्मा का हित करने की ही बुद्धि होती है। उस अपराधी को समाज के भयंकर कोप का भागी न होना पड़े, भविष्य में उसे उस अपराध के कारण घोर दुःख में न पड़ना पड़े, इस दृष्टि से सम्यक्त्वी आत्मा उसे यथोचित शारीरिक सजा भी देता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि के अनुकम्पाप्रवण हृदय में उसका जरा भी नुकसान या अहित करने की वृत्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन-प्राप्ति की पहचान : अनुकम्पा किसी व्यक्ति को भाव से सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है या नहीं ? इसकी एक पहचान अनुकम्पा से होती है। जिसकी अन्तरात्मा जीव सष्टि के किसी भी प्राणी, व्यक्ति, समाज और समष्टि पर आ पड़े हुए दुःख और संकट को देखकर द्रवित नहीं होती, जिसके हृदय में अनुकम्पा नहीं फूटती, समझलो अभी वह जीव सम्यग्दर्शन से दूर है । सम्यग्दर्शन से ही धर्माचरण (दर्शनाचार) का प्रारम्भ होता है और जिसके जीवन में अनुकम्पा नहीं आई अभी उसमें सद्धर्म अंकुरित ही नहीं हुआ। जिसका हृदय समवेदनशील नहीं, सहानुभूतिपरायण नहीं, सह-अस्तित्व की भावना से ओतप्रोत नहीं, परार्थ की वृत्ति से परिपूर्ण नहीं, वह अनुकम्पाहीन हृदय सम्यक्त्व रूप धर्म से दूर है। इसके विपरीत जिसके दिल में दुःखी को देखकर घणा, आक्रोश, तिरस्कार, मत्सर, अहंकार, ईर्ष्या, बदले की भावना, उसे गिराने और अधिक दुःखी करने की वत्ति प्रबल रूप से उभरती हो तो समझ लो उस पाषाणहृदय निपट स्वार्थी व्यक्ति ने भी सम्यग्दर्शन का प्रकाश नहीं पाया है। वह अभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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