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सम्यग्दृष्टि का तीसरा चिन्ह : निर्वेद | १६६ पड़ने पर वह सुख-सुविधा का मार्ग नहीं खोजता, वह समभाव से उन्हें सहता है । सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी अपने गृहस्थाश्रम में रहते हुए कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करता है, मगर उनके प्रति मोह, ममता, तृष्णा, आशा, स्पृहा आदि नहीं रखता। वह आत्मभाव में रमण करता है । आत्मा के हित और विकास का चिन्तन करता है।
निर्वेद का फल सम्यग्दृष्टि गृहस्थ या साधु के हृदय में जब निर्वेद उत्पन्न हो जाता है, तब उस व्यक्ति को जो लाभ मिलता है, वह भी अद्भुत है। भगवान् महावीर से जब गौतम स्वामी ने निर्वेद से होने वाले लाभ के विषय में प्रश्न किया तो उन्होंने फरमाया ---
__ "निन्धएणं दिव्व-माणुस-तेरिच्छेस् कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ सव्वविसएसु विरज्जइ।1
निर्वेद का अनन्तर (तत्काल) फल है-देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी कामभोगों से तत्काल विरक्ति-उदासीनता आजाना, तथा समस्त विषयों के प्रति विरक्ति ।
निर्वेद का स्वरूप है -कामभोगों से अरुचि या विरक्ति और उसका फल भी यही है । यहाँ कारण और कार्य दोनों एक ही बताए हैं। अतः निर्वेद का तात्कालिक फल देवादि कामभोगों तथा समस्त विषयों से मन का हट जाना है। अन्तःकरण में तनिक भी विषयों या कामभोगों की लालसा न रहे, विरक्ति हो जाए, तभी सच्चा निर्वेद या वैराग्य समझना चाहिए । निवेद का पारम्परिक फल क्या है ? इस सम्बन्ध में पूछने पर भगवान् ने बताया
__"सव्वविसएस विरज्जमाणे आरभं-परिच्चायं करेइ । आरंभ-परिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिन्दइ, सिद्धिमग्ग-पडिवन्ने भवइ ।"2
अर्थात्-सभी विषयों से सर्वथा विरक्त हो जाने पर साधक आरम्भ का त्याग करके संसार मार्ग को बन्द कर देता है, और सिद्धिमार्ग को स्वीकार कर लेता है।
निष्कर्ष यह है कि जब साधक का मन विषय-भोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह अन्य प्राणियों को किसी प्रकार के कष्ट देने रूप आरम्भ का त्याग कर देता है । आरम्भत्यागी ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूपमोक्ष-मार्ग का स्वीकार करके भवभ्रमण से बच जाता है। इस प्रकार निवंद का पारम्परिक फल मोक्ष है।
१. उत्तराध्ययन सूत्र अ० २६ बोल दूसरा २. , वही, दूसरा बोल
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