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________________ 'शम' का द्वितीय रूप-शम ! १५७ मण्डूकवृत्ति के लोग अहंकारवश अपने आपको बहुत बड़ा मानते हैं, अपनी प्रशंसा के पुल बांधते रहते हैं । अहंकार जब उग्ररूप धारण करता है, तब वह क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उसके फलस्वरूप कभी-कभी दंगा-फसाद लडाई-झगड़ा और बड़ा से बड़ा युद्ध तक हो जाता है। अहंकारी मनुष्य की पहचान प्रायः उसकी आँखों से, चेहरे से, चालढाल से, बोली से और पोशाक आदि से हो जाती है। उसकी खासियत यह होती है कि वह सभा आदि में प्रायः सबसे आगे या सबसे ऊँचे आसन पर बैठता है। भीड़ में वह सबके बीच मुखिया बनता है। उसके वाक्यों में मैं, मैंने, मुझे, मेरे द्वारा आदि शब्द निकलते रहते हैं। निष्कर्ष यह है कि अहंकार-कषाय भी मोक्षमर्ग में अतीव वाधक है, अतः उसकी तीव्रता सम्यक्त्व को प्रकट करने वाली कैसे हो सकती है ? __मोह, ममत्व, आसक्ति या रागभाव की तीव्रता - मोह, ममत्व, आसक्ति, अथवा रागभाव जब तीव्र हो जाते हैं, तो व्यक्ति अपने शुद्ध स्वरूप का- आत्मभाव का यथार्थ चिन्तन नहीं कर सकता। मोह-ममत्व भी एक ऐसा मद्य है, जिसके नशे में व्यक्ति स्वार्थान्ध, पक्षपाती, एवं दुराग्रही हो जाता है। ममत्व या मोह केवल धन, मकान, बाग, बंगला, कार, कोठी, तथा अन्य सुखोपभोग सामग्री का ही नहीं होता. अपने पद, प्रतिष्ठा, परिवार, सम्प्रदाय, मत-पंथ आदि का भी होता है। इतना ही नहीं, अपने माने हुए एकान्त विचारों का भी होता है। इतना जरूर है कि इन सब पर जब मोह ममत्व तीव्र हो जाता है, तब मोहान्ध, या ममत्वपरायण व्यक्ति मोह के नशे में हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य आदि पापकर्मों को करने पर भी उतारू हो जाता है । मोह-ममत्व के तीव्र नशे में पागल बना हुआ मनुष्य समाज विरोधी, सद्धर्म-विरुद्ध, राष्ट्रीयता के खिलाफ भयंकर कुकृत्य भी कर बैठता है । कभी-कभी मोहान्ध मनुष्य जिस वस्तु या व्यक्ति पर मूढ़, मुग्ध या आसक्त होता है, उसके न मिलने पर आत्महत्या भी कर बैठता है, अथवा उसकी प्राप्ति में विघ्न डालने या विरोध करने वालों का जानी दुश्मन भी बन जाता है। लोभ भी इन्हीं का भाई बन्धु है। तीव्र लोभवश मनुष्य सैकड़ों अनर्थ कर डालता है । अपने मार्ग में बाधक व्यक्ति का भयंकर नुकसान भी कर बैठता है। छल-कपट, माया, ठगी, धोखाधड़ी, लुटपाट, डकैती, चोरी, बेईमानी, अनीति, अत्याचार, अन्याय, बलात्कार, जोर जबदस्ती आदि भयंकर बुराइयाँ तीव लोभ, तीव्र मोह-ममत्व के कारण ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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