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________________ यथार्थ जीवन दृष्टि का मूल्यांकन | १०७ अपना दृष्टिकोण व्यापक उदार एवं उत्कृष्ट रखना चाहिए । जो साधन प्राप्त हैं, उन्हीं का अधिकाधिक बुद्धिमत्ता एवं विवेक से सदुपयोग करना चाहिए । अधिकांश मनुष्यों के पास प्रस्तुत साधन भी इतने अधिक होते हैं कि उनका सही ढंग से उपयोग किया जाय तो उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ एक-एक करके निकट आती जाती हैं । दृष्टि की स्वच्छता, विचारों की पवित्रता और भावना की उदात्तता ये तीनों विभूतियाँ जिसके स्वभाव में सम्मिलित हैं, वे स्वल्प साधनों से भी अपने व्यक्तित्व को प्रखर और प्रतिभावान् बना सकते हैं। प्रचुर अच्छे साधन मिलने पर हम अधिक सन्तुष्ट, प्रसन्न एवं अच्छी तरह रह सकेंगे, यह भ्रान्त विचार है। जिन्हें जीने की कला आती है, जिनकी दृष्टि जीवन और जगत् के प्रति यथार्थ है, गुणग्राही है, वे प्राप्त स्वल्प साधनों का ही श्रेष्ठतम उपयोग करने की बात सोचते हैं, और यथार्थतावादी दृष्टिकोण से सोचकर जीवन जीते हैं। वे वर्तमान परिस्थिति में जितना जो कुछ किया जाना सम्भव है, उसी में संतुष्ट रहकर करते हैं। फलतः वे क्षुब्ध, रुष्ट, खिन्न, असन्तुष्ट, उद्विग्न एवं व्यग्र दिखाई नहीं देते । सम्पन्न किन्तु फूहड़ या विकृत दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों की तुलना में वे कहीं अधिक समुन्नत एवं सुसंस्कृत दृष्टिगोचर होते हैं। वे सोचते हैं-जो कुछ साधन मिले हैं, उन्हें ही सौभाग्य मान कर प्रसन्नता का रसास्वादन किया जाए और जो नहीं है, किन्तु प्राप्त हो सकता है, उसके लिए उत्साहपूर्वक परिश्रम किया जाए। जो इस प्रकार सोचते हैं, वे कम या अधिक साधन प्राप्त होने पर भी समान रूप से हँसते-हँसाते हुए जीवन-यापन करते रहते हैं। परिष्कृत दृष्टि सम्पन्न खिलाड़ी या अभिनेता की भावना लेकर चलता है परिष्कृत दृष्टि वाले व्यक्ति जीवन को बेतुकेपन या बेढंगेपन से न जी कर सज्जनोचित शालीनता के साथ सुव्यवस्थित क्रम से जीते हैं। हर कार्य को वे पूरी दिलचस्पी और जिम्मेदारी के साथ पूरा करते हैं। इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग हो, अथवा अनिष्टवियोग और इष्टसंयोग हों, वे खिलाड़ी की भावना लेकर चलते हैं। खेल में हार भी होती हैं, जीत भी। सच्चा खिलाड़ी उसे महत्व नहीं देता। खेल में जीत पर न तो वे हर्षातिरेक से उन्मत्त होते हैं और न हार पर रोते-कलपते या सिर धुनते हैं । वे उसे केवल खट्टा-मीठा रसास्वादन मात्र मानते हैं । यही बातअभिनेताओं के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। वे रंगमंच पर हर्ष-शोकप्रदायक ऐसा क्रिया-कलाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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