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७० | सद्धा परम दुल्लहा
है । परन्तु चर्माच्छादित यह शरीर अपने असली स्वरूप में बीभत्स एवं घिनौना प्रतीत होने लगा। अतः इस चमड़ी को आवृत करने के लिए इस पर वस्त्र का आवरण लगाया। दूसरों को केवल चर्भाच्छादित नग्न शरीर देखकर विकृति पैदा न हो, सर्दी, गर्मी एवं वर्षा आदि से शरीर की सुरक्षा हो, लज्जानिवारण हो, इस उद्देश्य से वस्त्र निर्माण हुए। इसके लिए सादे वस्त्र ही पर्याप्त थे। इसके बदले दृष्टिविहीन अथवा केवल सृष्टिवाद के पुजारी मानव उस शरीर को कृत्रिम ढंग से सजाने लगे। वस्त्र पहनने का उद्देश्य भूलकर वह शरीर के अंगोपांग दिखाई दें, ऐसे बारीक वस्त्र पहनने में शरीर-सौन्दर्यवृद्धि मानने लगा। इतना ही नहीं, नाईलोन, टेरिलिन आदि के सूक्ष्म वस्त्रों में भी अमुक डिजाइन, अमुक आकृति अथवा अमुक काटछांट के वस्त्रों को पहनने का शौक बढ़ा । अपनी सुन्दरला, मानमर्तवा, आकर्षण, जाति-कुल आदि की झूठी प्रतिष्ठा के मद के पोषण के लिए मनुष्य ने इस कृत्रिम सृजन को अपनाया । साथ ही पाश्चात्य सभ्यता के अनुरूप अपनी वेशभूषा बना ली। कहीं-कहीं तो महिलाओं ने सिनेमा स्टार्स (तारिकाओं) की चटकीली और भड़कीली वेशभूषा का अनुकरण किया। प्राचीनकाल में शरीर को गहनों से लादने का रिवाज था। परन्तु अब उसका स्थान पेन, घड़ी, नेकटाई आदि ने ले लिया । होठों पर कृत्रिम लाली (लिपिस्टिक) लगाई जाने लगी। अधिक खर्चीली और तंग वेशभूषा भी इस कृत्रिम सृष्टि की देन है ।
फारस का बादशाह फतहअली शाह उन्नीसवीं सदी के आरम्भ तक जीवित रहा। उसे रत्नजडित पोशाक पहनने का बेहद शौक था । वह प्रतिदिन नया वस्त्र पहनता था। उसकी प्रत्येक पोशाक में सोना, चाँदी, हीरे और अनेक रत्न जड़े रहते थे। कहते हैं, राज्याभिषेक के समय उसने जो वस्त्र पहना था, उसमें जड़े हुए हीरे, मोती, लाल, मणि, सोना आदि का वजन उसके शरीर के वजन से भी अधिक था। अत्यधिक भार के कारण उसे खड़ा होना मुश्किल होता था।
विदेशी आततायी गजनी के बादशाह 'मसूद' को अपने खजाने के प्रदर्शन का इतना शौक था कि वह जब कहीं यात्रा करता था, तो अपने सम्पूर्ण खजाने को तीन हजार ऊंटों की पीठ पर लादकर चलता था। कितनी ही बार यात्रा के बीच में डाकुओं ने उसकी धनराशि लूट ली थी फिर भी विपुल धनराशि लेकर युद्ध के मैदान में भी चलने की उसकी आदत अन्तिम दिनों तक समाप्त नहीं हुई।
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