SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सद्धा परम दुल्लहा | २६ रचित उपदेश ग्रन्थों में, नीति ग्रन्थों में क्या अन्तर है ? यदि श्रद्धा नहीं है तो किस आधार पर आप आगम को भगवान् महावीर की वाणी या शास्त्र कहते हैं ? श्रमण भगवान् महावीर ने अपने पावापुरी के अन्तिम प्रवचन में चार दुर्लभ अंग बताये हैं-"माणसत्तं सई सद्धा संजमम्मि य वीरियं"। मनुष्यत्व, शास्त्र-श्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ । इसमें शास्त्र श्रवण के पश्चात् श्रद्धा का क्रम प्रतिपादित है । शास्त्र श्रवण से बुद्धि परिष्कृत होती है, वह धर्मानुरागिणी होती है और धर्मानुरागिणी बुद्धि ही स्थिर रूप धारण कर विश्वास में परिवर्तित होकर श्रद्धा बनती है। जो महामनीषीगण शास्त्र को तो महत्व देते हैं किन्तु श्रद्धा का उपहास करते हैं उनसे मेरा निवेदन है कि वे एकान्त-शान्त क्षणों में शांत मस्तिष्क से सोचें । यदि श्रद्धा नहीं है तो शास्त्र भी शास्त्र नहीं है । देव भी देव नहीं हैं। भगवान् में भगवत्त्व को प्रतिष्ठित करने वाली शक्ति एक मात्र श्रद्धा में ही रही हई है। कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन को कहा---''श्रद्धामयोऽय पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव त।".--गीता १७/३ पुरुष श्रद्धामय है। श्रद्धा में ही पुरुष का पुरुषत्व प्रतिष्ठित है। आत्मा को परमात्मा बनाने वाला तत्व श्रद्धा ही है। वचन को शास्त्र का स्वरूप, शास्त्र को गौरवगरिमा कौन प्रदान करता है ? हमारी श्रद्धा ही न ! वक्ता के प्रति यदि हमारी आस्था नहीं है तो वह प्रवचन भी वचन ही कहलाएगा। वाणी विलास के नाम से पहचाना जायेगा। यदि श्रद्धा का प्राधान्य है तो वह वाणी शास्त्र के नाम से विश्रुत होती है। ब्राह्मण साहित्य में भी इसी सत्य-तथ्य को इस रूप में उजागर किया गया है___ "श्रद्धया देवो देवत्वमश्नुते" -ते. ब्राह्मण ३/१२/२ श्रद्धा से ही देव देवत्व को प्राप्त करता है । प्रज्ञा पहली भूमिका है। श्रद्धा उसके आगे की भूमिका है। यह एक सत्य-तथ्य है कि बिना बुद्धि या तर्क के जीवन नैया चल नहीं सकती। पर साथ में यह भी सत्य है कि केवल तर्क जीवन नैया को भँवर जाल में उलझा देता है । जो महानुभाव केवल बुद्धि से जीवन व्यवहार चलाने की कमनीय कल्पना करते हैं वे स्वयं उसमें उलझ जायेंगे । केवल तके या कोरा प्रज्ञावाद मानव को नीरस और व्यवहारशून्य बना देता है । श्रद्धाहीन ज्ञानी जैन दर्शन को भाषा में ज्ञानी नहीं कहलाता वह भले ही शब्दशास्त्री क्यों न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy