________________
२४ | सद्धा परम दुल्लहा
वह असत्य कह सकता है, दूसरे को दुःख में डाल सकता है, डरा-धमका सकता है, अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए रागवश उनकी ठकुरसुहाती कह सकता है, या उन्हें कोई चमत्कार बताकर अपने वश में कर सकता है । परन्तु तीर्थंकर भगवान् तो लोकोत्तर आप्त होते हैं, वे राग-द्व ेषअज्ञान - मोह आदि विकारों से सर्वथारहित होते हैं । वे वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी क्यों असत्य कहेंगे ? उन्होंने अपने अनन्तज्ञान के प्रकाश में जो वस्तुस्थिति देखी, उसी का वर्णन किया है । उनके द्वारा बताये हुए आत्मापरमात्मा, इहलोक - परलोक, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, कर्म और उनके फल आदि सिद्धान्तों में शका ( अविश्वास ) को बिल्कुल अवकाश नहीं है । उन्होंने स्वयं अपने कर्मों को क्षय करने के लिए घोर उपसर्ग एवं परीषह सहन किये हैं । त्याग, तप एवं ज्ञान दर्शन - चारित्र की भव्यतम साधना की है, वही अनुभवसिद्ध मोक्षमार्ग उन्होंने जगत् को बताया । जगत् के जीवों में दिखाई देने वाली असमानता के मूल कारण कर्म को उन्होंने संसार के जीवों के समक्ष बताया । जगत् के समस्त जीवों की आत्मरक्षा और दया से प्रेरित होकर ही उन्होंने धर्म का प्रवचन कहा । ऐसे वीतराग जगत् वत्सल महापुरुषों के प्रति अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है ।
अतीन्द्रिय वस्तुओं का ज्ञान जिन लोगों को नहीं है, उन्हें अनन्तज्ञानी पुरुषों द्वारा अपने केवलज्ञान के प्रकाश में प्रत्यक्ष जानी- देखी हुई अतीन्द्रिय वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान मिलता है, तो उनका महान् उपकार मानना चाहिए और उन पर परम श्रद्धा-भक्ति रखनी चाहिए । जिन्हें अत्यन्त सीमित ज्ञान है, उन्हें अतीन्द्रिय वस्तुओं के ज्ञाता द्रष्टा आप्त पुरुषों पर अविश्वास लाकर कुतर्क करने का कोई कारण नहीं है ? बल्कि उन महान् उपकारकों के प्रति अविश्वास से उनकी घोर आशातना करके व्यक्ति अशुभकर्म बाँध लेता है । कूपमण्डूक जितने सीमित ज्ञान वाला क्या समुद्र जितने विशाल ज्ञान की परीक्षा करने का दुःसाहस कर सकता है ? साधारण व्यक्ति अपने मस्तक के पीछे पड़े हुए बड़े घड़े को भी चर्मचक्षुओं
१. सव्व जग जीवरक्खण -- दययाए पावयणं भगवया सुकहियं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- प्रश्नव्याकरण सूत्र
www.jainelibrary.org