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श्रेय का पथ ही श्रेयस्कर
दो मार्ग मनुष्य के सामने दो ही मार्ग हैं-एक है उत्थान का मार्ग और दूसरा है पतन का। दोनों की परस्पर विरोधी दो दिशाएँ हैं। इनमें से हम एक को श्रेय का और दूसरे को प्रेय का, अथवा एक को पुण्य का और दूसरे को पाप का मार्ग कह सकते हैं।
परमार्थ और स्वार्थ, प्रशंसा और निन्दा, शान्ति और अशान्ति अथवा स्वर्ग और नरक के मार्ग भी यही हैं। इन दोनों में से मानव स्वेच्छापूर्वक किसी भी मार्ग को अपने लिए चुन सकता है और अपना भविष्य आलोकमय या अन्धकारमय अथवा शान्तिमय या क्लेशमय बना सकता है। श्रेयमार्ग पर चलता हआ मनुष्य मानवता की पगडंडी से मार्गानुसारी, सम्यग्दृष्टि, श्रावकत्व और साधुत्व के महापथ पर बढ़कर अन्त में या तो सीधे ही मोक्ष की मंजिल पा लेता है, या फिर देवलोक में जाकर भोग्य शुभकर्मों का फल भोगकर उन्हें क्षीण करता है। इसके विपरीत प्रेयमार्ग पर चलने वाला मानव मानवता से च्युत होकर पशुता की पगडंडी अपनाता है, और अन्त में, 'दानवता की स्थिति में पहुँचकर नरक की अशान्त एवं क्षुब्ध मनोदशा की आग में झुलसता रहता है।
न चाहते हुए भी प्रेय का मार्ग अपनाते हैं अधिकांश मानव यह जानते हैं कि स्वार्थ और दम्भ का अथवा
१. श्रेय का अर्थ है---आत्मिक सुख और प्रेय का अर्थ है इन्द्रिय-सुख ।
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