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सम्यक् श्रद्धा की शुद्धि और वृद्धि | १२३ सदा उद्यत रहता है । वह धर्मकार्य में सदा उत्साहपूर्वक आगे रहता है । सम्यकश्रद्धालु की तीसरी पहिचान है - देव और गुरु की वैयावृत्य करना । अठारह दोषरहित सर्वज्ञ वीतराग अर्हन्तप्रभु की तथा मोक्षमार्ग पर चलने वाले पंचाचारपालक निर्ग्रन्थ गुरु की नियमित रूप से सेवा - उपासना करता है । अपने गाँव या नगर में गुरुदेव पधारे हों तो उनकी आहारपानी, औषध, सत्कार - सम्मान आदि से सेवा अवश्य करता है ।
(३) दस प्रकार का विनय-विनय का अर्थ है - देव गुरु-धर्म एवं इनसे सम्बन्धित अंगों के प्रति श्रद्धा, भक्ति, सत्कार, सम्मान, बहुमान, प्रशंसा, गुणानुवाद करना । इनके अवर्णवाद ( निन्दा, बदनामी, अप्रतिष्ठा ) तथा इनकी आशातना करने, इनसे ईर्ष्या-द्व ेष आदि न करना । भगवती सूत्र में विनय के दस प्रकार बताए हैं -- (१) अरहंतों का, (२) अर्हत्प्ररूपित धर्म का, (३) आचार्यों का, (४) उपाध्यायों का, (५) स्थविरों का, (६-७-८) कुल का, संघ का, गण का (ह) धार्मिक क्रिया का एवं (१०) साधर्मिक का विनय 11
यों शुश्रूषा तथा अनाशातना, द्विविधरूप से दस प्रकार से विनयः करने से मनुष्य के सम्यक्त्व (सम्यक् श्रद्धा) की शुद्धि वृद्धि और पुष्टि होती है ।
(४) तीन प्रकार की शुद्धि - मन, वचन और काया की शुद्धता भी सम्यक् श्रद्धा की शुद्धि-वृद्धि करती है 12 आशय यह है कि प्रशस्त मन से निःशंकित आदि ८ दर्शनाचारों का चिंतन करना, प्रशस्त वचन से श्रद्धेय तत्वों की प्रशंसा करना तथा काया से दर्शनाचार का प्रशस्त रूप से पालन - आचरण करना ।
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(५) शंकादि पाँच दोषों का निवारण - पूर्वोक्त शंका- कांक्षादि पांच दोष (अतिचार) सम्यक्त्व ( सम्यक् श्रद्धा) के लिए घातक हैं। उनसे स्वयं को बचाने वाला सम्यक्त्वी सम्यक् श्रद्धा की शुद्धि करता है ।
(६) अष्टविध सम्यक् प्रभावना - 'सम्यक्त्व - सप्तति में ८ प्रकार के
(ख) भगवती सूत्र शतक २५ उ. ७.
१ (क) स्थानांग सूत्र स्था. १०
२ भगवती सूत्र शतक २५ उ०७ मण-वय- काया सुही सम्मत्तसोहिणी तत्थ । ३. (क) अप्पमाउसो एस अट्ठे, एस परमट्ठे, ऐसे अणट्ठे
(ख) इणमेवनिग्गंथ पावयणं सच्चं "
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