SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५ चार वर्ग जैन वाङमय के मनीषीशिल्पी आचार्य भद्रबाहु ने कहा है- “जैसे सुनिर्मित नाव भी पवन के बिना समुद्र यात्रा में असमर्थ होती है, वैसे ही सुनिपुण साधक भी तप एवं संयम की साधना के अभाव में संसार-समुद्र से पार नहीं हो सकता।" वाएण विणा पोओ, न चएइ महण्णवं तरिऊ। निउणो वि जीव पोओ, तव संजम मारुअ-विहूणो।' कुछ साधक शील (सदाचार) को महत्व देते हैं, पर उनमें श्र त (ज्ञान) की ज्योति सर्वथा क्षीण प्राय होती है। कुछ साधक ज्ञान के आलोक से जगमग करते हैं, किंतु उनमें सदाचार की सुवास नहीं होती। कुछ शील और श्रु त दोनों के मणि कांचन योग से दीप्तिमान होते हैं तो कुछ श्रत और शील की श्री से सर्वथा हीन, निस्तेज अग्निपिंड-राख की भांति मलिन जीवन जीते हैं। १ आवश्यक नियुक्ति, ६५-६६ २ भगवती सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003185
Book TitleKhilti Kaliya Muskurate Ful
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1970
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy