________________
क्रोध का स्वरूप
५३
प्रातः तीनों उठे। सात्यकी का मुह और घुटने फूल रहे थे। घावों में रक्त बह रहा था। श्री कृष्ण ने हंसकर पूछा-'यह क्या हो गया तुम्हें ?"
सात्यकि ने रात्रि के दैत्य की बात सुनाई। बलदेव जा भी बोले- "बड़ा भयानक दैत्य था वह ! मुझे भी बहुत तंग किया उसने !” श्री कृष्ण ने दुपट्टे का छोर खोल कर कीड़े को सामने रखा- “यह है वह दैत्य ! तुम इसे पहचान नहीं पाये, यह तो क्रोध है। जितना क्रोध करो, यह बलवान होता है, बढ़ता है, और मुस्कराओ तो यह समाप्त हो जाता है-यही इसका स्वरूप है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org