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क्रोध का स्वरूप
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रास्ता भूल कर भटक गये । बियावान जंगल में एक वृक्ष के नीचे ही तीनों ने रात बिताने का निश्चय किया रात्रि के प्रथम प्रहर का अर्धभाग और अंतिम प्रहर का अर्धभाग सामान्यतः जागरण का समय था, प्रश्न था बीच के तीन पहर में सुरक्षा का । निश्चय किया गया, 'तीनों क्रमशः एक-एक पहर पहरा देंगे ।'
रात गहरी हो गई थी । सांय - सांय की आवाजों से जंगल की भीषणता भयावनी हो गई थी । सात्यकि पहरा दे रहे थे कि तभी एक दैत्य ने अट्टहास के साथ ललकारा - “ऐ पागल मनुष्य ! तुझे अपनी जान प्यारी है तो मुझे इन दोनों का भक्षण करने दे ।"
सात्यकि की नंगी तलवार अंधकार को चीरती हुई चमक उठी- "कौन है तू ! आ, अभी तेरा काम तमाम किए देता हूँ ।" सात्यकि ज्यों ज्यों दैत्य से टकराता गया, दैत्य अपने विकराल रूप को फैलाता चला गया, उसके पैर पाताल को छू रहे थे और हवा में उड़ते हुए बिखरे केश आकाश को चूमने लगे थे । पहर भर सात्यकि दैत्य के साथ जूझता रहा । उसका नख नख दर्द करने
लगा ।
सात्यकी ने बलदेवजी को जगाया । बलदेव पहरा देने लगे, सात्यकी सो गया । कुछ ही क्षणों में दैत्य के अट्टहास से पुन: दिशाएँ प्रकम्पित हो उठीं । बलदेव जी ने दैत्य को ललकारा, दोनों भिड़ गए, जैसे दो मत्तगजराज ! पहर भर तक दोनों का मल्लयुद्ध चलता
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