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अन्तर दृष्टि
जब तक दृष्टि बाहर में दौड़ती है, धन, वैभव, पुत्र, परिवार, भवन, आवास, राज्य, साम्राज्य सब पर अपना अधिकार जमाती जाती है। 'पर' को 'स्व' समझती है, और आसक्ति के बंधन में उसके साथ भटकती रहती
किन्तु जब दृष्टि अन्तर की ओर मुड़ती है तो वहाँ साम्राज्य, परिवार, वैभव और तो क्या, यह शरीर भी 'पर' दिखाई देता है-अहमिक्को खलु सुद्धो-मैं (आत्मा) ही परम विशुद्ध स्वरूपी अपना अकेला हूँ, इसी पर मेरा अधिकार है ?" इसके अतिरिक्त "णवि अस्थि मज्झकिंचि वि अण्णं परमाणु मित्त पि'--- परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, किसी पर मेरा अधिकार नहीं है।।
कहा जाता है-महाराज जनक के राज्य में एक ब्राह्मण से कोई भारी अपराध हो गया। महाराज जनक
१ समयसार ।३८
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