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जीवन स्फूर्तियाँ तो दूसरों की सेवा करने में, कर्तव्य पालन करने में, और ईमानदारी में है"-सूबेदार ने निर्भीक होकर सम्राट से कहा।
"तुम सूबेदार बनकर सेनापति से ऊँचे रहे हो, मैंने तुम्हें समझने में भूल की, आज से तुम फिर सेनापति पद को अलंकृत करो।"-सिकन्दर ने क्षमा के स्वर में सूबेदार का हाथ पकड़ कर कहा।
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