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अन्न की कुशलता
१२१ ___ महाजन विमूढ थे-राम के विचित्र व्यवहार पर ! क्ष धा की आकुलता के साथ आक्रोश की धुंधली रेखाएँ भी उनके भ्र वों पर मंडराने लगीं कि पुनः महाराज ने साग्रह कहा- "महाजनो! आप भोजन कीजिए न, सकुचा क्यों रहे हैं ?"
"महाराज ! आपका यह नवीन और विचित्र भोजन हम कैसे खायें !' हमें तो भूख लगी है, और वह अन्न से ही मिट सकती है।" नगर के प्रमुख महाजन ने निवेदन किया । __"क्या रत्नों से भी अन्न अधिक मूल्यवान है ?"राम ने गम्भीर होकर पूछा ।
"अवश्य, महाराज ! जीवन धारण के लिए तो अन्न ही सबसे महत्वपूर्ण है, यही सबसे बड़ा रत्न है।"
"महाजनो ! फिर धान्य की कुशलता पूछने पर आप लोगों की हँसी का कोई अन्य प्रयोजन था ?"-राम गम्भीर थे, महाजन अपनी भूल पर सकुचाते हुए भीतर ही-भीतर गड़े जा रहे थे।
राम ने अर्थपूर्ण भाषा में कहाउत्पत्तिर्दुलभा यस्य, व्ययो यस्य दिने-दिने । सर्वरत्नप्रधानस्य धान्यस्य कुशलं गृहे ॥
—जिसका व्यय तो प्रतिदिन होता ही रहता है, किन्तु उत्पन्न करना कठिन है, वह धान्य सब रत्नों में प्रमुख है, उसकी कुशलता घर में सबसे पहली चीज है।"
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