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अनुश्रुत श्र तियाँ अपने बच्चों के साथ वह उसे भी दूध पिलाने लगी। सिंहशावक भी उसे अपनी मां समझने लगा और बच्चों के साथ चौकड़ियां भरकर खेलता रहा । धीरे-धीरे सिंहशावक बड़ा हुआ, भेड़ के संस्कार और भेड़ के व्यक्तित्व के बिम्ब उसमें विकसित होने लगे। भेड़ों की तरह वह भी घास चरता और जंगली जानवरों को देखकर भय से कांपता हुआ मिमिया कर भाग जाता। ___एक दिन सिंह ने भेड़ों के झुंड पर आक्रमण किया। भेड़ें मुट्ठी में जान लिए भागने लगीं, सिंह शावक ने भी सिंह को देखा और भयभ्रान्त हो, छलांगें मारता हुआ उन्हीं के साथ हो गया।
सिंह शावक हांफता हुआ एक जलाशय के पास पहुँचा। सरोवर के निर्मल जल में उसे अपना प्रतिबिम्ब दिखाई दिया- “ऐ ! मैं तो भेड़ नहीं, सिंह हूँ, वैसा हा जैसा हमारे पीछे-पीछे हम पर झपटकर आ रहा था । ठीक वैसा ही, जिसे देख कर सारा जंगल कांप उठा था।" उसका सुप्त-सिंहत्व जग उठा, और एक निर्भय गर्जना उसके कंठों से फूटी तो वन-प्रान्तर काँप उठा।
स्वरूप की स्मृति होने पर व्यक्ति अपनी महत्ता का अनुभव करता है, आत्मा की विराट्ता का दर्शन करता है और जीव से जिनत्व की भूमिका पर आरूढ़ हो जाता है।
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