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आत्म-स्मृति
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स्वरूपतः जीव और शिव में कोई अन्तर नहीं है, जीव में जिनत्व की विराट् सत्ता समाई हुई है, जैसे बिंदु में सिंधु ! इसीलिए जैन आगम पुनः पुनः पुकारकर कह रहे हैंअहं अव्वए वि, अहं अवट्ठिए वि । '
"मैं अविनाशी हूँ, मैं अवस्थित सदा एक रस रहने वाला हूँ ।" प्रश्न है फिर आत्मा अपने को क्षुद्र पामर जीव समझ कर दीन क्यों बन रहा है ?
दर्शन का उत्तर है- आत्म विस्मृति ! वह अपने स्वरूप को विस्मृत किये हुए है, अपनी अनन्त चिद्शक्तियों का परिज्ञान उसमें स्फुरित नहीं हो पा रहा है ।
स्वरूप की विस्मृति ही माया है, मोह दशा है, स्वरूप की स्मृति ही मानवता है, जागृत दशा है । स्वरूप की अवस्थिति भगवत्ता है, ईश्वर दशा है । हमें आज स्वरूप विस्मृति से स्मृति की ओर आना है, और स्वरूप की स्मृति कर स्वरूप में अवस्थिति प्राप्त करना है ।
एक प्राचीन कथा है, जिसका उल्लेख महर्षि रमण ने भी अपने प्रवचन में किया है ।
एक नवजात अनाथ सिंह शावक जंगल में पड़ा था । भेड़ ने उसे देखा तो उसका मातृवात्सल्य उमड़ आया ।
१. ज्ञातासूत्र १५
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