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आत्म-वंचना
१११ पुरस्कार स्वरूप देता हूँ।" -महाराज ने हर्ष-विभोर होकर महल की चाबियां वृद्ध राजशिल्पी के हाथों में सोंप दी। महाराज की उदारता के जयनाद से सभा मंडप गूज उठा।
अपने ही छद्म से वंचित वृद्ध शिल्पी के जराजीर्ण चेहरे पर एक फीकी खुशी चमक रही थी, जो अन्तर की पीड़ा पर आवरण डाल कर भी उसे स्पष्ट प्रतिबिम्बित कर रही थी।
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