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कर्मण्येवाधिकारस्ते
कर्म की 'धुरा' पर अविचल-अप्रतिहत गति से घूमते रहना-यही जीवन का नियम है, सृष्टि का सिद्धान्त है । कर्म में गति है। कर्म फल की आशा में स्थिरता आ जाती है, गति कुठित हो जाती है। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को उद्बोधन दिया है___“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन !" तू अपना कर्म करता रह, फल के विषय में चिंता मत कर। कर्म करने वाला एक दिन सिद्धि के द्वार तक पहुंच जाता है । फल का विचार करने वाला उसी में उलझा रहता है। वह एक दिन कुण्ठा एवं जड़ता-ग्रस्त होकर समाप्त हो जाता है।
किनारों तक स्वच्छ जल से भरे हुए सरोवर ने पतला धाराओं में बहती हुई नदी से कहा-"तुम बड़ी मूर्ख हो, जो रात दिन निरंतर बहती हुई अपना मधुर जल खारे समुद्र में उडेलती हो ? क्या मिलता है इसके बदले में तुम्हें ? समुद्र तो फिर भी खारा ही है, तुम्हारी शक्ति का क्या लाभ मिला उसे, और तुम्हें !"
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