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८० पुण्यपुरुष लिए अनेक संकट सहे थे, जिसने उसे रोगमुक्त करने हेतु जंगल-जंगल, नगरी-नगरी की खाक छानी थी-वही देवीस्वरूपा उसकी माता महारानी कमलप्रभा सामने खड़ी थी।
दौड़ पड़ा श्रीपाल, माता के चरणों में जा गिरा, माता ने उसे उठाकर अपनी छलकती छाती से लगा लिया।
यह देवदुर्लभ क्षण था। अद्भुत शुभ-संयोग था। देवताओं ने भी इस मधुर-मिलन के अनुपम दृश्य को अवश्य ही अपने आकाशी विमानों में बैठकर देखा ही
होगा।
श्रीपाल ने कहा
"माँ ! मेरी प्यारी माँ! तू यहाँ कैसे पहुँच गई? कहाँकहीं भटकी होगी तू मेरे लिए? हाय ! बात तूने कितने दुख उठाए होंगे माँ....... !"
"बस कर, बेटे ! वह सब विगत की बात हो गई। अब उसका स्मरण करके इन आनन्दमय पवित्र क्षणों को क्यों नष्ट करें। तू स्वस्थ हो. गया, अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गया-और, मैं सुनती हूँ कि तुझे कोई सुन्दरी, सुशील राजकुमारी भी बहू के रूप में मिल गई है।" ... यह देखकर और इस वार्तालाप को सुनकर मैनासुन्दरी झट-से रथ से नीचे उतर आई और उसने अपनी सास के चरणों में मस्तक नमाकर उनसे आशीर्वाद मांगा।
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