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पुण्यपुरुष
करके लौट पड़े। श्रीपाल और मैनासुन्दरी भी जब वाटिका के द्वार पर पहुँचे तो उन्हें सामने राजा प्रजापाल खड़े दिखाई दिये।
किन्तु इस सामने खड़े राजा और कुछ समय पूर्व के राजा में अब पृथ्वी-आकाश का अन्तर था। . राजा भावुकता से भरकर श्रीपाल की ओर बढ़ा और उसे अपने हृदय से लगा लिया। मैनासुन्दरी ने नीचे झककर अपने पिता के चरणों का स्पर्श किया। पिता ने पुत्री को गले लगा लिया।
प्रजापाल का कंठ गद्गद् था। मैनसुन्दरी की आँखों में हर्ष के अश्रु छलछला आये थे। राजा ने जैसे-तैसे कहा
"बेटी ! मेरी प्यारी बेटी ! तू धन्य है, अद्भुत है। तेरे जैसी सती नारी को अपनी पुत्री के रूप में पाकर आज मैं भी कृतार्थ हो गया हूँ। बेटी मैना, और पुत्र श्रीपाल ! तुम दोनों सच्चे हृदय से मुझे क्षमा कर दो। मैं अज्ञान में था। मुझ पर अहंकार का मद चढ़ा हुआ था। अब वह मद उतर गया है । मेरा गर्व गलित हो गया है। मेरे ज्ञानचक्षु खुल गये हैं। आज से मैं भी पूर्ण श्रद्धाभाव से जैन धर्म के तत्त्वों का चिन्तन-आचरण करूंगा। तुम दोनों ने मुझेक्षमा तो........."
"पिताजी ! आप ऐसा न कहें। आपका कोई दोष नहीं। यह तो प्रत्येक प्राणी के स्वयं के कर्मों का ही शुभ
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