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पुण्यपुरुष ७७
पहुँचा । मुनिवर को वन्दन कर वह चुपचाप एक स्थान पर बैठ गया और प्रवचन सुनने लगा
मुनिवर फरमा रहे थे
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"आत्मा स्वभाव से निर्मल है । स्वच्छ दर्पण की भाँति । कर्मों का जाला उस पर घिर जाता है और आत्मा मलीन हो जाती है । यह कर्मजाल अथवा कर्म चक्र फिर उस आत्मा को भव भव में भटकता रहता है और प्राणी अनेक जन्मों में, अनेक प्रकार के सुख-दुखों का अनुभव करता है..........
"अतः हे भव्यजनो ! धर्म के तत्त्व का विचार करो । उस पर आचरण करो। ऐसा करने से ही समस्त आधिभौतिक तथा आधिदैविक विपत्तियों का विनाश होता है और आत्मा का कल्याण होता है ।"
राजा प्रजापाल कानों से इस प्रवचन को सुन तो रहा था किन्तु आँखें उसकी श्रीपाल पर ही टिकी हुई थी । उसे अपनी आँखों पर मानो विश्वास ही नहीं हो रहा थाकहाँ वह कोढ़ से ग्रसित, सड़ा-गला आदमी, और कहाँ यह देवोपम महापुरुष !
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विचित्र है संसार ! अद्भुत है प्रभु की कृपा ! धन्य है ऐसे धर्म को जो पापी से पापी और अज्ञानी से अज्ञानी प्राणी की नैया को भी पार लगा देता है - राजा के मस्तिष्क में ये विचार ही झंझावात की भांति चल रहे थे ।
सभा विसर्जित हुई। सभी लोग मुनिवर को वन्दन
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