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पुण्यपुरुष ७५
सौम्य, पवित्र मुखमुद्रा को अपने अन्तर्चक्षुओं से निहारते
रहे ।
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संसार-चक्र इसी को तो कहते हैं। आत्मा मायाजाल में जकड़ी रहती है और फिर चलता है भवभ्रमण - जब तक आत्मा मायाजाल को काटकर अपने सभी कर्मों का क्षय करके पुनः अपने विशुद्ध स्वरूप में स्थित न हो जाय ।
तपस्या तथा श्रद्धापूर्वक जिनप्रभु की आराधना से अशुभ कर्मों का क्षय होता है, शुभ कर्म उदित होते हैं ।
श्रीपाल तथा मैनासुन्दरी मुनिवर के वचनों का अक्षरश: एकचित्त होकर पालन करने लगे । वे प्रातः-संध्या नवकार मन्त्र का जाप किया करते तथा आयंबिल व्रत धारण किये रहे ।
अन्त में मुनिवर के वचन सिद्ध हुए । श्रीपाल के पुण्यों का उदय हुआ और देखते-देखते ही उसके शरीर की समस्त व्याधि विनष्ट हो गई। उसकी बलिष्ठ, सुन्दर, कंचन काया अपनी अद्भुत कांति से दमकने लगी- मानो साक्षात् कामदेव ही श्रीपाल का रूप धरकर अवतरित हो गए हों ।
मैनासुन्दरी की प्रसन्नता का अब कोई पार न रहा । अपना शुभ परिणाम जो हुई ही, धर्म में उसकी
धर्म में उसकी अचल श्रद्धा ने प्रकट किया था । वह प्रसन्न तो आस्था और भी दृढ़ हो गई ।
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