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पुण्यपुरुष ७१ इतना ही कहकर मुनि मौन गए। किन्तु उनके नेत्रों से करुणामृत निर्धारित हो रहा था।
कुछ क्षण बाद मैनासुन्दरी ने ही कहा
"मुनिवर ! आपके दर्शनों से हृदय शीतल हो गया है। मन के समस्त आवेग शान्त हो गये प्रतीत होते हैं। आपका कथन यथार्थ है।" __ "तब फिर आकुल क्यों हो ?"--मुनिवर ने प्रश्न किया। __"आकुल ? हाँ, मुनिवर, आकुल ही हो सकती हूँ। कारण भी आप जैसे ज्ञानी से अज्ञात नहीं हो सकता।"
मुनि पुनः प्रेमपूर्वक बोले
"अपने पति के इस रोग के कारण आकुल हो न? धर्म का मर्म जानती हो, फिर भी आकुल हो ? धर्म की शरण में आ जाने पर तो फिर कोई भय रहता नहीं, कोई व्याधि ठहरती ही नहीं।"
मैनासुन्दरी को अवसर मिल गया। उसने साहस करके स्पष्ट रूप से कहा___ "पूज्य मुनिवर ! आज आपकी शरण में आ जाने पर दृढ़ आस्था हो रही है कि सब कल्याण ही होगा। किन्तु फिर भी मन मानता नहीं है । भन्ते ! मेरे पतिदेव कोढ़ से ग्रस्त हैं। ये शीघ्र रोगमुक्त हों, ऐसा कोई उपचार जानना चाहती हूँ।"
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