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७२ पुण्यपुरुष करके वे शान्त भाव से हाथ जोड़कर उनके सामने ही भूमि पर कुछ दूरी रखकर निश्चल बैठ गये।
मुनिवर त्रिकालदर्शी थे।
ध्यान की घड़ियां धीरे-धीरे पूर्ण हुईं और मुनिवर ने अपने नेत्र खोले।
सहसा ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे किसी कंचन काया के निर्मल सरोवर में दो नीलकमल खिल गये हों।
उन नेत्रों में क्या नहीं था ? प्रेम का पारावार लहरा रहा था। करुणा का विस्तृत आकाश फैला हुआ था। ज्ञान के अखण्ड-दीप आलोकित थे । __ पति-पत्नी ने मुनिवर का ध्यान पूर्ण हुआ जानकर उन्हें पुनः वन्दन किया। गंभीर प्रेम से सराबोर वाणी में मुनिवर ने कहा"धर्मलाभ !"
इसके बाद कुछ क्षण तक मैनासुन्दरी को यह सोचना पड़ा कि आगे वह वार्तालाप कैसे प्रारम्भ करे । फिर अपने मन को स्थिर करके वह बोली-- ___ "पूज्य मुनिवर! आप अशरण के शरण हैं। हम पतिपत्नी आज आपकी शरण आये हैं।"
मुनिवर के पाटल ओष्ठों पर प्रेम और करुणाभरी मुसकान आई । वे बोले
"आत्मा स्वयं ही अपनी शरण है, उसे जानना चाहिए।"
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