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पुण्यपुरख
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करने तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करने आए हैं। आप अपने हृदय में पूर्ण श्रद्धा रखिए।" __ श्रद्धावान तो श्रीपाल था ही। उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
भक्तिभाव से पूरित हृदय लिए वे दोनों आगे बढ़ गए।
एक सघन, विशाल अशोक वृक्ष के नीचे सादे वस्त्र के आसन पर शुभ्र, श्वेत वस्त्रधारी मुनिवर विराजमान थे। वे इस समय ध्यानमग्न थे। उनके मुखमण्डल से दिव्य तेज प्रकट होता हुआ प्रतीत होता था। सागर के समान वे शान्त दिखाई पड़ते थे। धर्म तथा तप से तपी हुई उनकी काया कुन्दन जैसी थी। उनके आसपास के वातावरण में अद्भत शान्ति विराजती थी और एक पवित्र सौरभ पवन में लहराता प्रतीत होता था।
पक्षी आसपास के वृक्षों पर चहचहा रहे थे। किन्तु इनकी चहचहाहट भी बड़ी मधुर और कर्णप्रिय थी, मानो उस वाटिका में विराजित उन मुनिवर का सान्निध्य-सुख उनकी आत्मा में भी विकसित हो रहा था।
श्रीपाल और मैनासन्दरी अत्यन्त धीमे कदमों से मुनिवर के समीप गये, इतने धीमे कदमों से कि उनकी ध्वनि से मुनिवर का ध्यान बीच में ही भंग न हो जाय । उन्होंने मुनिवर की तीन बार प्रदक्षिणा की और विधिपूर्वक वन्दना
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