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________________ • पुण्यपुरुष "हाँ ऽऽ हैं तो अकेली ही । वैसे एक हमारा विश्वस्त साथी है । मेरे छोटे भाई जैसा समझो, चाहे मुझमे कुछ वर्ष बड़ा ही है । शशांक नाम है उसका । वह माताजी की खोज-खबर अवश्य रखता होगा ऐसा मेरा विश्वास है ।" " तब तो कुछ धीरज बँधा । आपकी माताजी को भी अब मुझे तुरन्त खोज निकालना होगा ; लेकिन चलिए देर हो रही है, बातों ही बातों में हम भटकने लगे । आइए ।" अपनी कुटिया से निकलकर श्रीपाल के साथ मैना - सुन्दरी उसी एकान्त वाटिका की ओर चली जिसमें जैन मुनिराज विराज रहे थे । रास्ते भर दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला । मैनासुन्दरी अरिहन्त भगवान का स्मरण कर रही थी । श्रीपाल जिज्ञासा में था कि उसे यह अद्भुत लड़की कहाँ ले जा रही है ? घड़ी भर में ही वे दोनों वाटिका के बहिर्द्वार तक आ पहुँचे । वहाँ क्षणभर के लिए मैनासन्दरी ठहरी, उसने श्रीपाल का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा "प्राणनाथ ! हम आ पहुँचे । इस वाटिका में एक परम ज्ञानी, परम तपस्वी जैनमुनिवर अपनी शिष्यमंडली सहित विराजे हैं । हम उन्हीं के दर्शन कर अपने जीवन को धन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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