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पुण्यपुरुष ६६. के श्रवण-मनन तथा उन पर आचरण से घोर से घोर अपवित्रता भी हो तो वह नष्ट हो जाती है । अन्यथा फिर धर्म, जोकि पवित्रता का ही मूर्त रूप है, उसका मतलब ही क्या रह जाता है ?"
मैनासुन्दरी की यह बात सुनकर श्रीपाल चकित रह गया । उसने कहा-
।
"मैना ! तुम तो सचमुच परम विदुषी हो । मेरी माता भी मुझे कुछ ऐसी ही बातें समझाया करती थी । किन्तु इस समय मेरी माता जाने कहाँ होगी ?"
यह सुनकर मैना ने जिज्ञासावश पूछा
" आपकी माताजी कहाँ चली गई ? क्या वे आपको रोगी देखकर अलग हो गईं ?"
" नहीं - नहीं, मेरी माता भला ऐसा कर सकती है ? वह मेरी रक्षा के लिए अपने प्राण भी दे सकती है । मेरे लिए उसने क्या-क्या कष्ट सहे हैं, यह कुछ लम्बी कथा है । फिर कभी सुनाऊँगा ।"
" किन्तु वे अभी हैं कहाँ ?"
" ठीक-ठीक तो मुझे भी नहीं मालूम। किन्तु वे मेरे इस रोग का उपचार खोजने के लिए किसी वैद्यराज की खोज में निकल पड़ी हैं। जाने कहाँ कहाँ भटक रही होंगी ?"
"ओह ! क्या वे बिल्कुल अकेली ही भटक रही हैं ?" -मैना ने चिन्तित होते हुए पूछा ।
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