________________
६८ पुण्यपुरुष उसे जिन भगवान पर अटूट आस्था थी। जैनधर्म की शिक्षाओं को उसने अपने आचरण में उतार लिया था, अतः वह अभय थी। किसी भी कठिन से कठिन परिस्थिति का सामना वह विवेक, साहस तथा धैर्य से कर सकती थी। यही कारण था कि धर्म पर अचल आस्था रखकर उसने श्रीपाल जैसे कोढ़ से ग्रस्त युवक से विवाह भी स्वीकार कर लिया था और चेहरे पर एक शिकन भी नहीं आने दी थी।
जब श्रीपाल स्नानादि कर्मों से निवृत्त हो चुका, तब मैनासुन्दरी ने उससे कहा
“आइये, मैं आपको एक बड़े पवित्र स्थान पर ले चलती हूँ।"
"पवित्र स्थान पर ? मुझे ? अरे, ऐसे किसी पवित्र स्थान पर मुझे भला कौन जाने देना ? और क्या मेरे वहाँ जाने से उस स्थान की पवित्रता नष्ट नहीं हो जायगी ?" __ "आप भी कैसी बातें करते हैं ? पहली बात यह है कि आपमें कोई अपवित्रता है ही नहीं। केवल एक रोग है, जो कर्मफल से उदित हुआ है। कर्मों की शान्ति होने पर यह रोग अवश्य ही समाप्त हो जायगा । पवित्रता या अपवित्रता तो, नाथ ! हृदय के भावों में होती है। आपका हृदय स्वच्छ शुद्ध है। तब भला आपके अपवित्र होने का क्या प्रश्न !
"दूसरी बात यह है कि पवित्र स्थान पर जाने से, पवित्र आत्माओं के संसर्ग-संगति से, उनके पवित्र विचारों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org