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पुण्यपुरुष ६१ अचल निष्ठा है इसकी ! कितना प्रेम है इसके छोटे से हृदय में ! कैसी वज्र की-सी दृढ़ता प्रकट होती है इसकी इस कोमल देह से।
आखिर उसने पूछा
"असाध्य नहीं है यह रोग ? क्या तुम यही कह रही थी ?" ___ "हाँ, मेरे देव ! इस संसार में असाध्य कछ भी नहीं है।"--मैना ने उसी प्रकार मुस्कुराते हुए किन्तु निष्ठाभरे स्वर में कहा। - "लेकिन मैना ! सारा संसार तो इस रोग को असाध्य ही मानता है । देखने में भी ऐसा ही आता है।"
जो प्राणी मिथ्या देखता है उसे मिथ्या ही दिखाई देता है नाथ ! यह संसार अपने चर्मचक्षुओं से ही जो कुछ देखता है, बस, उसी को, वैसा ही सत्य मान लेता है । वह अपने ज्ञानचक्षु खोलता ही नहीं। यदि वह अपने ज्ञानचक्षुओं से देखे तो जो कुछ मैं कह रही हूँ उसकी सत्यता उसके सामने प्रकट हो जाय।"
श्रीपाल भी ज्ञानी था। उसने मैनासुन्दरी के कथन को ठीक से समझ भी लिया। यह भी जान लिया कि मैनासुन्दरी के रूप में उसे एक आदर्श पत्नी मिली हैएक अनमोल रतन मिला है।
किन्तु फिर भी वह मैनासुन्दरी को इस भीषण रोग से बचाना चाहता था। उसने कहा---
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