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पुण्यपुरुष ५६
का क्षुद्र जन्तु ! तुम एक शान्त पवित्र प्रार्थना और ........"
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" मेरे भगवान !" - मैना ने वाक्य पूर्ण किया - "मैं सचमुच एक प्रार्थना ही हूँ मेरे नाथ ! और आप मेरे भगवान हैं । यह प्रार्थना अब सदैव अपने भगवान के श्रीचरणों में ही रहेगी । भविष्य में अब आप कभी ऐसे कटुवचन अपने मुख से न निकालिएगा। मुझे पीड़ा होगी; । और आप तो जानते ही हैं कि किसी भा प्राणी को पीड़ा पहुँचाना अधर्म है।"
" किन्तु राजकुमारी........!"
" राजकुमारी नहीं, मैना । केवल मैना " कहकर मैनासुन्दरी ने प्रेम से श्रीपाल की आखों में झाँका ।
मैनासुन्दरी की उन दो भोली, काली आंखों में असीम श्रद्धा तथा अनन्त प्रेम का सागर लहरा रहा था ।
उस गहन सागर में श्रीपाल का दुःख, संकोच, संशय, परिताप - सब डूब गया ।
उसने कहा - " आओ, मैना ! यहाँ बैठें।"
फटी-सी थी एक चटाई । संसार से उपेक्षित, जीवन से निराश कोढ़ियों के घर में और होता भी क्या ? उसी चटाई पर वे बैठ गये ।
कुछ क्षण कोई नहीं बोला । मैना चाहती थी कि उसके पति का सब संकोच दूर हो जाय, वे स्वयं को अपराधी
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