SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यपुरुष ५७ * किन्तु बड़ी कठोर है मनुष्य की छाती । वह सब कुछ सह लेती है । जो कुछ सोचा जा सकता है उसके विपरीत वह दृढ़वती, पतिपरायणा सती मैनासुन्दरी प्रसन्न थी । उसकी आत्मा सर्वथा शान्त थी । एक क्षण के लिए भी उसके मस्तिष्क में यह विचार नहीं आया कि उसके साथ अन्याय हुआ है - कि उसका भविष्य मृत्यु के गर्त में झोंक दिया गया है कि वह अपने कोढ़ी पति के साथ कैसे रहेगी ? वह प्रसन्न थी कि भाग्य ने उसकी परीक्षा ली है । और उसे अचल विश्वास था कि धर्म की हौ विजय होगी । वह जानती थी कि आज जो दुष्कर्म उदित हुए हैं वे कल शमित हो जायेंगे और फिर पुण्योदय का मंगल प्रभात होगा । ऐसा होना ही चाहिए । सत्य की यह अमिट रेखा है । शान्त, प्रफुल्ल, होठों पर मुस्कान लिए वह चन्द्रमुखी बैठी थी और अपने पति परमेश्वर का स्मरण कर रही थी । द्वार खोलकर उम्बर राणा ने भीतर प्रवेश किया । किन्तु वह आगे नहीं बढ़ा । चित्रवत् खड़ा रह गया । दूर कोने में ही उदास, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy