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५६ पुण्यपुष का साहस भी बहुत लोगों को नहीं हुआ। अनेक घरों में अन्धकार ही रहा।
उज्जयिनी नगरी के सदूर छोर पर, नगरी से लगभग बाहर ही, क्षिप्रा नदी के किनारे कुछ छोटी-छोटी घासफूस की झोपड़ियां रात के अन्धेरे में चाण्डालिनियों जैसी दीख रही थीं। मानो वे मनुष्यों के आवास नहीं, इस शस्यश्यामला धरती का कोढ़ ही हों।
ऐसी ही एक झोंपड़ी में एक छोटा-सा तैल-दीप जल रहा था।
आप आश्चर्य न करें, इस तेल-दीप के हलके-से, पीलेसे प्रकाश में एक चन्द्रमा उदित हुआ था।
चकित न हों, यह चन्द्रमा और कुछ नहीं, सती मैनासुन्दरी का चन्द्रमुख ही था। और वह अपनी पूर्ण कला में खिला हुआ था। ___कोई भी सोच सकता है कि ऐसी विषम परिस्थिति में एक अबोध बाला, जिसे जीवनभर के लिए किसी कोढ़ी जैसे असाध्य रोगी के साथ बांध दिया गया हो, कितनी दुःखी हो सकती है !
उसे रोना चाहिए। सिर पटक-पटककर रोना चाहिए । अपना करम फोड़ लेना चाहिए। जहर खा लेना चाहिए। किसी कुएं-बावड़ी में डूबकर मर जाना चाहिए। छुरी या तलवार से अपनी छाती चीर लेनी चाहिए।
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