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पुण्यपुरुष ५३ भी अपनी सन्तान के प्रति कितना कठोर हो सकता है तथा कितना बड़ा अन्याय कर सकता है इसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण था।
आज भी अधर्म होता है। लोग जानते नहीं, अपने आपको पहिचानते नहीं; अन्धश्रद्धा में पड़े अपने दिनरात के काले कारनामों को भगवान के मत्थे मढ़ देते हैं कि तू जाने तेरा काम जाने, तू हमारा रक्षक है, हमारे पापों को छिपा ले, या क्षमा कर दे ।
किन्तु भगवान उसमें क्या करेगा ? यदि वह कुछ करता होता तो एक साथ ही सारी सृष्टि का पाप-कलुष न धो डालता ? सबको एक साथ ही सद्बुद्धि न दे देता ? सभी के कष्ट क्षण मात्र में न हर लेता? __ लेकिन ऐसा तो कोई भगवान है नहीं जो इतना सिरदर्द अपने माथे ले।
भगवान हैं, वीतराग भगवन्त हैं। किन्तु वे 'वीत' 'राग' हैं । संसार के, जीवन के सभी झमेलों से, छोटे से छोटे कर्म से भी परे हैं। वे तो अमूर्त पुण्य हैं।
उस अमूर्त पुण्य को समझा जाय, उसका बराबर चिंतन किया जाय, उस पर अपनी व्यवहार-क्रिया चलाई जाय, तभी पुण्यलाभ हो सकता है ।
किन्तु एक तीर से दो निशाने लगाने वाले अधार्मिक जीव उस काल में भी निकल ही आते थे और इस काल में तो उनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है
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