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________________ पुण्यपुरुष " अब देखते क्या हो ? जाओ, हमारी आज्ञा उन्हें सुना दो । कल बरात नगर-द्वार पर आ जानी चाहिए ।" ५२ किन्तु मन्त्री का माथा ठनक गया था । अपने सिर को जमीन की ओर कुछ और झुकाकर हाथ बाँधे हुए ही उसने कहने का साहस किया "महाराज ! आप सर्वशक्तिमान हैं । आज जो चाहें सो कर सकते हैं । किन्तु महाराज आप किस लड़की के करम फोड़ने का विचार कर रहे हैं... "बको मत । वह लड़की बड़ी धर्म-कर्म की बातें करती है न ? भरी सभा में मेरा अपमान भी उसने किया है । अब देखता हूँ कि उसके कर्म उसे क्या-क्या खेल दिखाते हैं ।" "आपका मतलब, महाराज महाराज कुमारी........।” ܝܐ कहीं.. कहीं ........कहीं राज "तुम भी बुद्धिमान हो मन्त्री ! जल्दी ही बात समझ जाते हो । हाँ, मेरा मतलब मैनासुन्दरी से ही है । मैं सोच रहा था कि उसे क्या शिक्षा दूं जिससे कि उसका गर्व गलित हो जाय । लगे हाथ मेरे द्वार पर आये हुए याचकों की इच्छा पूर्ति भी हो जायेगी और मैना को उसके कर्मों का फल भी मिल जायेगा । एक तीर से दो निशाने हो जायेंगे ।" Jain Education International अज्ञान के अन्धकार में भटकता हुआ, मिथ्या को सत्य मानता हुआ और गर्व के पाश में जकड़ा हुआ एक पिता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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