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पुण्यपुरुष
काफी दूर से ही उसने हाँक लगाई
" अरे ओ भैया ! कौन हो तुम लोग ? जरा कोई एक अच्छा सा आदमी आगे को तो आओ। मुझसे तो तुम लोगों की बदबू ही सहन नहीं होती ।"
वही बूढ़ा नायक, जिसने रानी कमलप्रभा तथा कुमार को प्रेमपूर्वक अपने आश्रय में किसी दिन ले लिया था और उनके प्राणों की रक्षा की थी, आगे आया । उसकी कमर अब काफी झुक चुकी थी । लाठी के सहारे, धुंधली आँखों से रास्ता टटोलता हुआ वह मन्त्री के समीप पहुंचा । मन्त्री दो-चार कदम और पीछे हट गया और बोला
" अरे भाई, मेरे कान अभी तेज हैं और मुझे दिखाई भी देता है । जरा दूर ही रहो और बताओ कि तुम लोग कौन हो, कहाँ से आए हो, क्या चाहते हो ?"
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बूढ़े नायक को अपनी इस दीन-हीन अवस्था में भी मन्त्री के इस व्यवहार से चोट लगी । आखिर परमात्मा की सृष्टि का वह भी तो एक जीव था । आज अपाहिज था, कोढ़ी था, किन्तु इसमें उसका क्या दोष ? दोष था तो उसके गत जन्म के किन्हीं कर्मों का। किन्तु उस कारण से क्या मनुष्य को मनुष्य से घृणा करनी चाहिए ?
कुछ रूखे से स्वर में उसने उत्तर दिया---
" आप कोई राजपुरुष प्रतीत होते हैं | बड़े आदमी हैं । बड़े भाग्य हैं आपके । हम तो पशु हैं, कोड़ी हैं । जहाँ इस पापी पेट को दो दाने मिल जाते हैं, चल देते हैं........."
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