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________________ पुण्यपुरुष ४३ "कौन हो भाई. तुम लोग ?" "हम ? हम तो भाई भाग्य के सताये हुए कोढ़ी हैं।" "कोढ़ी ? छिः छिः !'- कहकर वह सवार कुछ कदम पीछे हट गया और फिर उसने पूछा__ "इधर कहाँ जा रहे हो ? जानते नहीं यह सामने परम दानी राजा प्रजापाल की राजधानी है।" __ "जानते हैं नायक ! इसीलिए तो दानी राजा से हम अभागे कुछ याचना करने के लिए लम्बी मंजिल तयकर यहाँ तक आये हैं !" ___ "अरे कोढ़ियो ! कुछ लेना ही है तो उसके लिए इतने समीप आने की क्या आवश्यकता थी? दूर रहकर ही किसी के साथ सन्देश भेज दिया होता।" ___"भूल हुई नायकजी ! अभी तो हम राजधानी से दूर ही हैं । सोचा था कि यहीं कहीं किसी वापी के किनारे डेरा डाल लेंगे।" "ठीक है, ठीक है । अब तुम लोग यहीं ठहरो। देखो, वह रही एक वापी-उत्तर दिशा में । वहीं डाल लो अपने खाट-खटोले । खबरदार एक कदम भी अब आगे मत बढ़ाना । मैं वापिस जाकर महाराज को खबर करता हूं। फिर जैसी महाराज की आज्ञा ।" - "जुग-जुग जियो, नायक ! तुमने हमारा काम सरल कर दिया। जल्दी लौट आना। महाराज से हमें बड़ी आशा है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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