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पुण्यपुरुष
"अरी माता ! तू ज्ञानी भी है और भोली भी। मैं कहती हूँ कि तू तनिक भी चिन्ता न कर। इस जगत में कोई प्राणी किसी भी अन्य प्राणी का लेशमात्र भी अकल्याण नहीं कर सकता है। सभी अपने-अपने कर्मों का ही फल प्राप्त करते हैं। यदि मेरी आत्मा धर्म में दृढ़ है तो फिर मुझे किसी से डरने की जरूरत नहीं है । तू शान्त होकर देख कि अब आगे क्या-क्या होता है।"
किसी प्रकार से मैना ने अपनी माता को शान्त तो कर दिया किन्तु ममतामयी माता के हृदय के भीतर शूल की भाँति चिन्ता शालती ही रही।
दूसरे ही दिन राजा प्रजापाल कतिपय राजपुरुषों के साथ वन-भ्रमण को निकला । वह अपने मन को बहलाना चाहता था। गत दिवस भरी सभा में उसने स्वयं अपने ही अज्ञानवश जो अपना अपमान माना था वह उसे निरन्तर खल रहा था और वह अज्ञानान्ध अपनी ही बेटी को कोई कड़ी सजा देने का उपाय खोज रहा था।
वह अवसर मिल भी गया।
राजा की सवारी जब वन-प्रान्तर में आगे बढ़ रही थी तब सामने, दूर से उसे राजमार्ग पर धूल उड़ती हुई दिखाई दी और ध्यान से देखने पर कोई यात्रियों का काफिला राजधानी की ओर ही आता हुआ दिखाई दिया।
राजा ने तुरन्त एक घड़सवार को आगे भेजा, यह जानने के लिए कि वे लोग कौन हैं; और स्वयं वृक्षों की शीतल छाया में ठहर गया।
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