________________
पुण्यपुरुष ३६ "पिताजी ! इस संसार में प्रत्येक प्राणी अपने-अपने शुभ या अशुभ कर्मों से ही अच्छे या बुरे परिणामों को भोगता है। अन्य कोई प्राणी न उसे सुख दे सकता है और न दुख । यह अटल कर्म सिद्धान्त है । अतः मैं अत्यन्त विनम्रतापूर्वक आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप भी इस तथ्य को समझें, ग्रहण करें तथा मिथ्याभिमान करने से बचें।"
भरी सभा में, अपनी ही पुत्री द्वारा, स्वयं के प्रति आक्षेपजनक प्रतीत होता हुआ यह कथन सुनकर राजा प्रजापाल आग-बबूला हो उठा । गरजकर उसने कहा___ 'नादान ! लड़की तो क्या तू यह कहना चाहती है कि यदि मैं चाहूँ तो तुझे सुख या दुःख नहीं दे सकता?"
"पिताजी ! आप यदि ज्ञान की शुद्ध दृष्टि से देखेंगे तो समझ सकेंगे कि आप तो क्या, संसार का कोई भी समर्थ से समर्थ माना जाने वाला व्यक्ति भी, संसार के छोटे से छोटे प्राणी के कार्यक्रम में अणु-मात्र भी परिवर्तन नहीं कर सकता ।"
"बस-बस, अब तू अपनी बकवास बन्द कर । अच्छी शिक्षा प्राप्त की तूने ? मैंने तुझे जन्म लेने के बाद से ही सभी प्रकार का सुख उपलब्ध कराया और तू कहती है कि प्राणी अपने ही कर्मों से सब कुछ प्राप्त करता है ? यह सोरा राजसुख जो तू भोग रही है, वह मैंने तुझे प्रदान नहीं किया तो क्या तू स्वयं अपने साथ लाई थी ? यदि तेरा ऐसा ही मानना है तो तू अब देखना कि तुझे तेरे कर्मों का कैसा फल मिलता है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org