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पुण्यपुरुष
कंठस्थ कर लिए। इसके अतिरिक्त अनेक धार्मिक ग्रन्थ पढ़कर उसने जैनधर्म का गहन ज्ञान प्राप्त किया।
दोनों राजकुमारियाँ जब अपना विद्याभ्यास पूर्ण कर चुकीं, तब राजा प्रजापाल ने एक दिन अपनी राजसभा को निमन्त्रित किया और भरी सभा में उन दोनों की परीक्षा ली। ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित अनेक प्रश्न दोनों राजकुमारियों से पूछे गये और दोनों ने ही उन प्रश्नों के समुचित सही उत्तर दिए। वे उत्तर सुनकर तथा यह देखकर कि राजकुमारियाँ सचमुच परम विदुषी हो गई हैं, राजा तथा सभी उपस्थित राजपुरुष अत्यन्त प्रसन्न हए। अपनी प्रसन्नता के उसी आवेश में राजा ने अपनी दोनों बेटियों से कहा__ "मैं आज बहुत प्रसन्न हूँ। तुम दोनों ने मन लगाकर ज्ञानार्जन किया है । अतः इस हर्ष के शुभ अवसर पर मैं तुम्हें तुम्हारी मनोवांछित वस्तु प्रदान करना चाहता हूँ। यह तो तुम जानती ही हो कि मैं राजा हूँ। मेरी शक्ति की कोई सीमा नहीं। मैं जो चाहूँ वह कर सकता हूँ। जिसे जो चाहूँ वह वस्तु प्रदान कर सकता है। निर्धन को मैं धनवान बना सकता हूँ, असमर्थ को समर्थ बना सकता हूँ। संक्षेप में यह कि मेरी कृपा से ही मेरी सारी प्रजा सुख भोग रही है। अतः तुम लोग मुझसे मनचाहा वरदान माँग लो।"
राजा की इस गर्वोक्ति को सुनकर सुरसुन्दरी ने उत्तर दिया
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