SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य पुरुष २६ हमें अब सुरक्षा का कोई दूसरा उपाय खोजना पड़ेगा । भला कोढ़ियों के साथ हम कैसे रह सकते हैं ?" इस परिस्थिति को जानकर रानी भी निराश हुईं । गम्भीरता से सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए ? मन्त्री मतिसार की ओर से कोई सहायता आती दीख नहीं रही थी । अजितसेन परम दुष्ट और चालाक था । हो सकता है कि उसने मतिसार को ही कैद कर लिया हो, अथवा कौन जाने वह स्वामिभक्त राजसेवक उन पापियों के हाथों अपने जीवन से ही हाथ धो बैठा हो ? प्रश्न जीवन और मरण का था । जीवन और मरण का विकट प्रश्न जब उपस्थित हो जाय तब निर्णय तत्काल और दो टूक ही करना होता है । रानी ने निर्णय कर लिया। उसने कहा - " शशांक ! तुम दौड़कर जाओ और उस यात्रीदल को घड़ी भर के लिए रोक लो । मैं कुमार को लेकर आती । अब असमंजस में समय व्यतीत करना घातक सिद्ध हो सकता है । कर्मों के परिणाम को भोगने से कोई प्राणी बचा नहीं, बच सकता भी नहीं । जो भाग्य में होगा वह होकर ही रहेगा। मुझे अपने प्राणों की तो कोई चिन्ता नहीं, किन्तु किसी भी मूल्य पर मैं कुमार की जीवन रक्षा करना चाहती हूँ। यह अवसर अच्छा है । इस दल में मिलकर मैं कुमार को सुरक्षित किसी दूर के प्रदेश में ले जा सकेंगी। इस प्रकार कुछ आशा तो बनी रहेगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy