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पुण्यपुरुष
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की गोद में देकर वह नदी के तीर पर जाकर अपने घावों को धो-पोंछ आया ।
तब तक प्रकाश चारों ओर अच्छी तरह फैल गया था । शशांक ने आस-पास के जंगली वृक्षों से कुछ मधुर फल एकत्रित किये और वनवासियों की भाँति उन तीनों प्राणियों ने कुछ अल्पाहार किया ।
इतना तो हो गया । किन्तु अब ? अब क्या करना चाहिए ? किधर जाना चाहिए ?
नदी - किनारे, झुरमुट की ओट में बैठे रानी और सेवक शशांक इस विकट समस्या पर विचार कर रहे थे ।
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भोला राजकुमार शंख और सीपियों से खेल रहा था । प्रत्येक पल यह आशंका बढ़ती जाती थी कि अजितसेन के अनुचर उनको खोजते हुए वहाँ पहुँच न जाएँ ।
उसी समय रानी और शशांक को कुछ अश्वों की टाप और उसके साथ ही गाड़ियों के पहियों को घरघराहट सुनायी दी। वे चौंक गये । उन्हें आशंका हुई कि शत्रु शायद आ ही पहुँचे हैं । प्रभु का स्मरण करते हुए वे अच्छी तरह ओट में हो गये । कुमार को भी उन्होंने शान्त रहने के लिए कह दिया ।
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वह ध्वनि निकट दूर पर जनपथ था । श्री ।
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आती गयी। नदी किनारे, कुछ ही उसी दिशा से यह ध्वनि आ रही
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