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पुण्यपुरुष
शशांक की पदचाप सुनकर आशंकित रानी एकदम चौंक गई और उसने स्वयं को और कुमार को सघन कुंज में और भी अच्छी तरह ओट में कर लिया । फिर धीरे-धीरे उसने पत्तों की ओट से बाहर की ओर झाँका.... . शशशांक !
"ओह शशांक ........शशांक ! इधर आओ। मैं यहाँ हूँ । इस कुंज के भीतर ।” कहती हुई रानी शशांक की ओर दौड़ पड़ी ।
डूबते को तिनके का सहारा मिल गया ।
स्वाभिभक्त शशांक ने जब रानी को देखा तो उसके छूटते हुए प्राण लौट आये । उसकी क्षत-विक्षत देह में हजार हाथियों का बल आ गया । दौड़कर रानी के चरणों में कटे हुए वृक्ष की तरह गिर ही पड़ा और बोला
.....
"महारानीजी ! परमात्मा को कोटिशः धन्यवाद कि आप मिल गईं। मैं तो आपकी और कुमार की चिंता से मर ही गया था ।"
"मैं और कुमार सुरक्षित हैं, शशांक ! उठो, अब विलम्ब न करो । सबसे पहले अपने इन घावों को धो डालो, कुछ स्वस्थ हो लो, और फिर भविष्य का कार्यक्रम निश्चित करो । समय अमूल्य है ।"
समझने वाले शशांक ने
परिस्थिति की विषमता को रानी की आज्ञा का तुरन्त पालन
किया । सबसे पहले
उसने कुमार को गोद में लिया, उसे प्यार करके पुनः रानी
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