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पुण्यपुरुष
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आशा बड़ी बलवती होती है। मानव-जीवन इसी आशा के क्षीण तन्तु के सहारे विकट से विकट परिस्थिति को भी साहस के साथ सह लेता है।
शशांक भी इसी आशा की डोर थामे उस गहन वन में रानी और कुमार को खोजता इधर-उधर भटक रहा था, आगे बढ़ रहा था।
प्रत्येक निराशा की रात्रि का भी कभी न कभी सबेरा होता ही है। उस विकट रात्रि का सबेरा भी अन्ततः आ ही पहुंचा । पूर्व की ओर से उषा का आलोक फूटने लगा, गहन अन्धकार झुटपुटे उजाले में परिवर्तित हुआ और क्रमशः प्रकाश की पहली किरण ने पृथ्वी के माथे को चूम लिया।
पुण्यात्मा श्रीपाल और पवित्रात्मा कमलप्रभा के सद्भाग्य से प्रभात के उजाले में रानी को एक सरिता कलकल नाद के साथ बहती दिखाई दी। अर्धमृत-सी रानी जैसे-तैसे उस सरिता के किनारे पहुंची और किसी सघन कंज की ओट लेकर उसने सबसे पहले भूखे-प्यासे कुमार को पानी पिलाया और फिर अपने घाव धोने बैठ गयी। आगे क्या होगा, यह विचार उसने भावी पर ही छोड़ दिया।
पूर्वजन्म के संचित पुण्यों का प्रताप ही कहना चाहिए कि उसी समय शशांक भी लुटा-पिटा-सा, क्षत-विक्षत स्थिति में, रानी को खोजता हुआ उसी स्थल पर जा पहुंचा।
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