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२४ पुण्यपुरुष
उसके सुकोमल पैरों के तलवे कांटों और तीक्ष्ण कंकरों से क्षत-विक्षत हो गये। उसके घुटने छिल गये थे। उनसे बहता हुआ रक्त रास्ते पर एक रक्त-रेखा छोड़ता चला जा रहा था, जिसे उस सघन अन्धकार में केवल कोई भावुक कवि अथवा क्रूर काल ही देख सकता था।
एक-एक कदम उस अभागिनी रानी के लिए पहाड़ हो गया था, किन्तु वह रुक नहीं सकती थी। यदि रुक जाती, और अजितसेन के कौड़ी के गुलाम आकर उसे पकड़ लेते तो क्या होता ? नहीं, वह रुक नहीं सकती थी। अपने प्यारे बेटे, जीवन के एकमात्र अवलम्ब उस कोमल कुमार के पवित्र प्राणों की रक्षा के लिए उसे आगे चलना ही था।
और रानी कमलप्रभा बेटे को छाती से लगाये चलती ही चली जा रही थी।
अटवी इतनी गहन थी कि शशांक अपनी सारी तत्परता के उपरान्त भी अपनी महारानी से अन्धकार में कहीं बिछड़ गया था। रानी और कुमार के भविष्य की चिन्ता से उसके प्राण उसके कण्ठ में आ गये थे-क्या मुँह दिखायेगा वह संसार को ? क्या उत्तर देगा मन्त्री मतिसार को? हाय ! वह रानी की रक्षा न कर सका-कौन जाने किस हिंसक प्राणी ने उसे अपना ग्रास बना लिया हो ? कौन जाने अजितसेन के सैनिकों ने उसे जा पकड़ा हो ?
किन्तु, कौन जाने प्रभु की कृपा से रानी और कुमार सुरक्षित ही हों!
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