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________________ पुण्यपुष २३ दुश्चिन्ता से पीड़ित-प्रताड़ित, कांटों-पत्थरों की ऊबड़खाबड़ राह पर घिसटती-घिसटती आगे बढ़ रही थी। - वन इतना सघन था कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था। घुप्प अन्धकार भयानक सर्प की भांति कुंडली मारे बैठा था। चारों ओर नीरव-रात्रि का सन्नाटा सांय-साय कर रहा था। उस प्राणलेवा सन्नाटे और अँधेरे के बीच से हिंसक वन्य-प्राणियों की दिल दहला देने वाली चीत्कारें और गुर्राहटें बीच-बीच में रानी के कर्ण-कुहरों से आकर टकराती थीं और वह कलेजा थामकर भय के मारे बार-बार घुटनों के बल गिर पड़ती थी। जाने किस दिशा से, कब कोई वन्य-पशु उस पर, और उसके कोमल कुमार पर उछल पड़े और उन्हें चीथकर चबा डाले। जाने कब लम्बी-लम्बी घास के बीच रेंगता हुआ कोई विषधर अपनी जहरीली दाढ़ें उसके कोमल पैरों में गड़ा दें। जाने कब किसी वृक्ष की डाल से लटकता हुआ कोई अजगर उसे और कुमार दोनों को अपनी भीषण कुण्डली में जकड़ ले ! बलिहारी है समय की ! इस विकटतम संकटकाल का उसका एक मात्र साथी-शशांक भी इस घुप्प अंधियारे और वीहड़ सघन वन में उस अबला से बिछुड़ गया था। वह एकाकिनी थी, अबला थी, कर्म-फल भोगती विवश, भसहाय माता थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003183
Book TitlePunya Purush
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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