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पुण्यपुष २१ से टकराए। उसे अनुमान करने में विलम्ब नहीं हुआ कि परीक्षा की घातक घड़ी आ पहुँची है। कुमार के जोवनमरण का प्रश्न अब इन्हीं कुछ पलों की कच्ची डोर से बँधा हुआ है ।
मन्त्री मतिसार ने लगभग चीखते हुए, आज्ञावाही स्वरों में कहा
- "महारानीजी ! अब तैयार होने का समय भी शेष नहीं रहा । हत्यारे आ पहुंचे हैं। मैं इन्हें रोक लूंगा। आप जैसी हैं, वैसी ही कुमार को लेकर शशांक के साथ भीतर के गुप्तमार्ग से चल पड़िए और गुप्त भूगर्भ मार्ग को पार कर दक्षिण वन में कहीं आश्रय लीजिए । यदि मैं जीवित रहा तो कल आपसे उसी वन में मिलूंगा। और यदि........शशांक, दौड़ महारानी जी को ले जा........"
सीढ़ियाँ चढ़कर, नंगी तलवार हाथ में लिए हुए हत्यारे अब उस कक्ष के द्वार की ओर ही बढ़ रहे थे। __ मन्त्री मतिसार हाथ में तलवार और अपना सिर हथेली पर लिए द्वार पर विन्ध्यपर्वत के अडिग शैल-शिखर की भाँति अचल खड़ा था।
शेष कक्ष शून्य था।
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